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Showing posts from August 5, 2018

नजरो का कसुर है

तेरी मीठी रातों से इक रात चुराने आया हूँ" तेरी मीठी रातों से इक रात चुराने आया हूँ तेरी नीली आँखों से कुछ ख्वाब चुराने आया हूँ ना दे इल्ज़ाम तू चोरी का, मैं चोर नहीं दीवाना हूँ  इस रात की बस औकात मेरी, मैं नन्हा इक परवाना हूँ ले चलूँ तुझे तारों की छाँव, आ चल मैं लेने आया हूँ  तेरी मीठी रातों से इक रात चुराने आया हूँ……………….. तेरी चमक पे नहीं अटका मैं, तेरी सादगी पे फिसला हूँ है आज आखिरी रात मेरी, मोहब्बत के सफर पे निकला हूँ रख दे मेरे काँधे पर सर, इक गीत सुनाने आया हूँ तेरी मीठी रातों से इक रात चुराने आया हूँ……………….. जो मधुर मिलन दो पल का है, वो सदियों पे भारी है ला पिला दो ज़ाम इन आँखों से, मेरे पैमाने खाली हैं अधरों पे मुस्कान तो ला, मैं तुझे हंसाने आया हूँ तेरी मीठी रातों से इक रात चुराने आया हूँ……………….. सुना है चाँद की बस्ती खाली है, वहां किसी से जान-पहचान नहीं पत्थर के टीले पर बैठेंगे, सबसे छुपकर चुपचाप कहीं क्यूँ ऐसे रूठी सोयी है, मैं तुझे मनाने आया हूँ तेरी मीठी रातों से इक रात चुराने आया हूँ……………….. वो देख फलक पर बादल हैं, और चाँद बगल से झांक रहा

यादे मेरे बाचपन कि

मेरे बचपन की बारिश बड़ी हो गयी ! OFFICE की खिड़की से जब देखा मैने,मौसम की पहली बरसात को.... काले बादल के गरज पे नाचती, बूँदों की बारात को... एक बच्चा मुझसे निकालकर भागा था भीगने बाहर... रोका बड़प्पन ने मेरे, पकड़ के उसके हाथ को! बारिश और मेरे बचपने के बीच एक उम्र की दीवार खड़ी हो गयी... लगता है मेरे बचपन की बारिश भी बड़ी हो गयी.. वो बूँदें काँच की दीवार पे खटखटा रही थी... मैं उनके संग खेलता था कभी, इसीलिए बुला रही थी... पर तब मैं छोटा था और यह बातें बड़ी थी... तब घर वक़्त पे पहुँचने की किसे पड़ी थी... अब बारिश पहले राहत, फिर आफ़त बन जाती है... जो गरज पहले लुभाती थी,वही अब डराती है.... मैं डरपोक हो गया और बदनाम सावन की झड़ी हो गयी... लगता है मेरे बचपन की बारिश भी बड़ी हो गयी.. जिस पानी में छपाके लगाते, उसमे कीटाणु दिखने लगा... खुद से ज़्यादा फिक्र कि लॅपटॉप भीगने लगा... स्कूल में दुआ करते कि बरसे बेहिसाब तो छुट्टी हो जाए... अब भीगें तो डरें कि कल कहीं OFFICE की छुट्टी ना हो जाए... सावन जब चाय पकोड़ो की सोहबत में इत्मिनान से बीतता था, वो दौर, वो घड़ी बड़े होते होते कहीं खो गयी..  लगता

सिलसिले मोहोबत का अनजाने सहरो मे

कहानी दो दिल कि 11/8/2016 शाम के तक़रीबन सात बजें थें,मैं आज थोड़ा सा परेशान था तो कॉफी पीने ओल्ड स्कूल कैफे में पहुचा। वहाँ की कॉफी मुझे बहुत पसंद है,और यहाँ घर से दूर एक कॉफी ही तो सहारा होती है और जब भी मुझे माँ की याद आती है मैं चला आता हूँ इस खूबसूरत से कैफ़े में। मेरी सारी आदतों में शुमार ये भी एक आदत ही है मुझे लायब्रेरी पार्क और कैफे में घंटो बैठने की आदत है। जब भी मैं इन जगहों पे अकेले बैठा होता हूँ,तो मुझे बहुत सुकून मिलता है। मानो ये सारी जगहें मेरे रूह के करीब हैं। रविवार का दिन हो और माँ के कॉफी की याद आये तो एक ही जगह दिखती है मुझे ओल्ड स्कूल कैफे, नाम जितना खूबसूरत है उतनी ही जायके दार कॉफी भी होती है इस जगह की। पिछले एक  दो साल जब से मैं कानपुर रह रहा हूँ और पहली बार जब इक दोसत ने मुझे ये जगह दिखाई थी तभी से अब तक यहाँ मैं हर रविवार और कभी कभी तो और भी दिन जरूर आता हूँ। आज की बैचैनी जाने क्यों थी,पर माँ की याद और घर का प्यार शायद हम जैसे स्टूडेंट ही समझ सकतें हैं,जो घर से दूर रहते हों। तो इन्ही सब यादों को समेट के मैं एक टेबल पे जा बैठा,आज इस जगह पे थोड़ी सी

लक्ष्य. इक कहानी एैसी भी

            लक्ष्य निलेश और सुधा दोनों दिल्ली के एक कालेज में स्नातक के छात्र थे. दोनों में गहरी दोस्ती थी. आज उन की क्लास का अंतिम दिन था. इसलिए निलेश कालेज के पार्क में गुमसुम अपने में खोया हुआ फूलों की क्यारी के पास बैठा था. सुधा उसे ढूंढ़ते हुए उस के करीब आ कर पूछने लगी, ‘‘निलेश यहां क्यों बैठे हो?’’ उस का जवाब जाने बिना ही वह एक सफेद गुलाब के फूल को छूते हुए कहने लगी, ‘‘इन फूलों में कांटे क्यों होते हैं. देखो न, कितना सुंदर होता है यह फूल, पर छूने से मैं डरती हूं. कहीं कांटे न चुभ जाएं.’’ निलेश से कोई जवाब न पा कर उस ने फिर कहा, ‘‘आज किस सोच में डूबे हो, निलेश?’’ निलेश ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘सोच रहा हूं कि जब हम किसी से मिलते हैं तो कितना अच्छा लगता है पर बिछड़ते समय बहुत बुरा लगता है. आज कालेज का अंतिम दिन है. कल हम सब अपनेअपने विषय की तैयारी में लग जाएंगे. परीक्षा के बाद कुछ लोग अपने घर लौट जाएंगे तोकुछ और लोग की तलाश में भटकने लगेंगे. तब रह जाएगी जीवन में सिर्फ हमारी यादें इन फूलों की खूशबू की तरह. यह कालेज लाइफ कितनी सुहानी होती है न, सुधा. ‘‘हर रोज एक नई स्फूर्ति के

सिलसिले मोहोबात का. काश तेरी बातो पे मुझे याकिन होता

काश...!! आई सी यू के बाहर काँच की खिड़की से अंदर देखते हुए आरुष की आंखों से लगातार ही आंसू बह रहे थे बेड पर जो लड़की अपनी मौत से इस वक़्त जंग लड़ रही थी वो कोई और नही उसका प्यार था वो पिछले कोई 5 साल से इस रिश्ते में था ..शादी करना चाहता था।। उस दिन दोपहर बाद 3 बजे की बात को याद करते हुए आरुष की आंखों के आंसू फिर से बेलगाम हो के बह निकले।। 3 बजे के आसपास ही फ़ोन आया था दीपा का "हेलो आरुष मैं अपने ऑफिस के फ़्रेंड्स के साथ आज बाहर जा रही हु घूमने " आरुष उस वक़्त अपने सिविल सर्विसेज की कोचिंग के लिए नोट्स वैगरह रख रहा था बैग में बस रेडी था जाने को-- "हेलो दीपा कितनी बार कहा है तुमसे तुम अपने उन वाहियात दोस्तो के साथ मत जाया करो वो मुझे बिल्कुल भी पसंद नही है" दीपा का उधर से भन्नय हुआ जवाब आया "तुम्हे तो मैं ही नही अब पसंद हु हर बात पे रोकते टोकते रहते हो यह मत जाओ वहाँ मत जाओ इसके साथ मत जाओ उसके साथ मत जाओ में तो तंग आ गयी हु तुमसे हर बात पे ओवर रियेक्ट करते हो बात बात पे उल्टी सीधी बाते करने लगते हो मुझे बात ही नही करनी है तुमसे तुम्हारा रोज का ये नाटक हो गया है